भक्ति परंपरा के उदयः सांस्कृतिक कारण


Published Date: 06-06-2025 Issue: Vol. 2 No. 6 (2025): June 2025 Published Paper PDF: Download E-Certificate: Download
सारांश: भक्ति आंदोलन केवल धार्मिक प्रवृत्ति न होकर एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन था, जिसने तत्कालीन समाज की स्थिरता, रूढ़िवादिता, और जातिगत जड़ता को तोड़ने का प्रयास किया। इस आंदोलन के उदय के पीछे अनेक सांस्कृतिक कारक कार्यरत थे, जिनका प्रभाव तत्कालीन सामाजिक संरचना और धार्मिक चेतना पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। प्रथम, भक्ति परंपरा के प्रसार का एक मुख्य कारण ब्राह्मणवादी कर्मकांड की जटिलता थी, जिसने आम जनमानस को धार्मिक जीवन से दूर कर दिया था। ऐसे समय में भक्ति परंपरा ने ईश्वर की उपासना को सरल, भावनात्मक और सर्वसुलभ बनाकर जनसामान्य को एक आध्यात्मिक विकल्प प्रदान किया। द्वितीय, इस कालखंड में मुस्लिम शासन की स्थापना के साथ सामाजिक असुरक्षा, सांस्कृतिक संक्रमण और धार्मिक असमंजस की स्थिति उत्पन्न हुई, जिसके प्रत्युत्तर में भक्ति आंदोलन ने एक आत्मीय, अहिंसक और समावेशी धार्मिक दर्शन प्रस्तुत किया। तृतीय, लोकभाषाओं का विकास भी भक्ति आंदोलन के प्रसार का एक प्रमुख सांस्कृतिक आधार था। कबीर, तुलसी, मीरा, नामदेव, ज्ञानेश्वर जैसे संतों ने अपनी रचनाओं को संस्कृत के बजाय स्थानीय भाषाओं में प्रस्तुत किया, जिससे धार्मिक विचारधारा ग्राम्य और शहरी जनता दोनों के लिए बोधगम्य बनी। इस भाषिक परिवर्तन ने न केवल सांस्कृतिक जागरण को जन्म दिया, बल्कि साहित्य, संगीत और लोककला की अभिव्यक्ति को भी नया स्वरूप प्रदान किया। चतुर्थ, भक्ति आंदोलन ने जाति-व्यवस्था को चुनौती दी और सामाजिक समरसता की भावना को प्रोत्साहित किया। शूद्र, स्त्री, दलित तथा वंचित वर्गों को भी आध्यात्मिक अनुभव और मुक्ति का समान अधिकार दिया गया, जो उस युग की प्रगतिशील विचारधारा का परिचायक था। इस प्रकार, भक्ति परंपरा के उदय के पीछे गूढ़ सांस्कृतिक कारण निहित थे, जो धार्मिक, भाषिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर मध्यकालीन भारत में गहरे परिवर्तन का आधार बने। यह परंपरा एक धार्मिक सुधार आंदोलन होने के साथ-साथ सांस्कृतिक पुनर्जागरण की भूमिका में भी अग्रणी सिद्ध हुई।
मुख्य- शब्दः भक्ति आंदोलन, सांस्कृतिक परिवर्तन, मध्यकालीन भारत, सामाजिक समरसता, संत परंपरा, भाषिक विकास, धार्मिक सहिष्णुता, लोकभाषा, जाति व्यवस्था।