बिहार में पंचायती राज प्रणाली (1990-2015): एक सर्वेक्षण.


Published Date: 04-06-2025 Issue: Vol. 2 No. 6 (2025): June 2025 Published Paper PDF: Download E-Certificate: Download
सारांश: 1990 से 2015 के मध्य बिहार में पंचायती राज प्रणाली के विकास और प्रभाव का अध्ययन करना भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस कालखंड में पंचायती व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा मिलने के पश्चात् बिहार में स्थानीय स्वशासन की पुनर्स्थापना हुई, जो ग्रामीण विकास, सामाजिक समावेशिता तथा लोकतांत्रिक भागीदारी की दिशा में एक ऐतिहासिक परिवर्तन था। 73वें संविधान संशोधन अधिनियम (1992) के बाद बिहार में पंचायती राज अधिनियम 1993 में लागू किया गया, जिससे ग्राम, पंचायत, प्रखंड और जिला स्तर पर सत्ता के विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई। 1990 के दशक में सामाजिक न्याय की राजनीति के उदय के साथ ही पिछड़े वर्गों, महिलाओं तथा अनुसूचित जातियों-जनजातियों को पंचायतों में आरक्षण प्रदान किया गया, जिससे सत्ता का व्यापक आधार तैयार हुआ। वर्ष 2001 में हुए पहले पंचायत चुनावों ने ग्रामीण नेतृत्व के एक नए युग की शुरुआत की। महिला प्रतिनिधित्व को 50 प्रतिशत तक बढ़ाने का निर्णय विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा, जिसने नारी सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस अवधि में पंचायतों को वित्तीय संसाधनों, योजनाओं और प्रशासनिक अधिकारों के हस्तांतरण की प्रक्रिया भी विकसित हुई, हालाँकि इसमें कई चुनौतियाँ भी उभर कर आईं, जैसे भ्रष्टाचार, प्रशासनिक अड़चनें तथा जन-जागरूकता की कमी। 2006 के बाद महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (डळछत्म्ळ।) तथा अन्य केंद्र व राज्य योजनाओं के क्रियान्वयन में पंचायतों की भूमिका बढ़ी, जिससे उनकी कार्यक्षमता व उत्तरदायित्व को एक नई पहचान मिली। परंतु पंचायतों में क्षमता निर्माण, सूचना का पारदर्शी प्रसार, और राजनीतिक दखल जैसे पहलुओं में अभी भी सुधार की आवश्यकता रही। 2015 तक बिहार की पंचायती राज प्रणाली एक स्थायी और क्रियाशील लोकतांत्रिक इकाई के रूप में विकसित हो चुकी थी, किंतु यह भी स्पष्ट हुआ कि इसके सशक्तिकरण के लिए निरंतर सुधारात्मक प्रयास आवश्यक हैं।
मुख्य शब्द : पंचायती राज, बिहार, 73वाँ संशोधन, ग्राम पंचायत, महिला प्रतिनिधित्व, सामाजिक न्याय, विकेंद्रीकरण, स्थानीय स्वशासन, ग्रामीण विकास।