डॉ0 आंबेडकर का सुधारः जाति-प्रथा के संदर्भ में


Published Date: 05-08-2025 Issue: Vol. 2 No. 8 (2025): August 2025 Published Paper PDF: Download
Abstract: आंबेडकर के अनुसार जाति-प्रथा मानवाधिकारों का उल्लंघन करती है और सामाजिक समरसता में बाधक है; अतः इसके उन्मूलन के लिए शिक्षा, कानून और संगठित जनजागरूकता आवश्यक है। वे स्वतंत्रता-समता-बंधुता को सामाजिक लोकतंत्र का नैतिक आधार मानते हैं तथा संविधान में समानता, अस्पृश्यता-उन्मूलन जैसे प्रावधानों, आरक्षण एवं सकारात्मक कार्रवाई के औचित्य को सामाजिक ऐतिहासिक वंचना निवारण से जोड़ते हैं। आंबेडकर ने सुधार को केवल विधायी कदमों तक सीमित न रखकर सामाजिक नैतिक परिवर्तन का प्रश्न भी माना इसलिए उन्होंने शिक्षा-विस्तार, श्रम कानूनों के संवर्धन, आर्थिक स्वावलंबन, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और स्त्री सशक्तीकरण पर बल दिया। समकालीन भारत में जाति-आधारित विषमता, अवसर असमानता, तथा मानसिक संस्कृतिक पूर्वाग्रह अभी भी मौजूद हैं; इसलिए आंबेडकरवादी सामाजिक न्याय परियोजना आज भी प्रासंगिक है विशेषकर बुनियादी शिक्षा, कौशल, बहु-विषयक उच्च शिक्षा, डिजिटल समावेशन, और न्याय तक सुगम पहुँच के संदर्भ में। अध्ययन निष्कर्षित करता है कि जाति-प्रथा का स्थायी उन्मूलन बहुस्तरीय रणनीति कानूनी क्रियान्वयन, संस्थागत जवाबदेही, पाठ्यचर्या सुधार, आर्थिक अवसरों का न्यायपूर्ण वितरण, लैंगिक न्याय और समुदाय आधारित जागरूकता से ही संभव है। आंबेडकर का बौद्ध धर्म ग्रहण भी एक नैतिक राजनीतिक प्रतिवेदन है, जो समानता आधारित नागरिकता और करुणा न्याय की वैकल्पिक संवेदना प्रस्तुत करता है। समग्रतः, आंबेडकर का सुधार एजेंडा आधुनिक भारत के लिए नीति डिज़ाइन का जीवंत स्रोत है, जो सामाजिक लोकतंत्र की नींव मानव गरिमा, अधिकार समानता और संवैधानिक नैतिकता को व्यवहार में उतारने की दिशा दिखाता है। यह अध्ययन डॉ. भीमराव आंबेडकर के जाति प्रथा विरोधी सुधारवादी दृष्टिकोण का विश्लेषण करता है, जिसमें सामाजिक न्याय, संवैधानिक प्रावधान, शिक्षा, आर्थिक सशक्तिकरण, महिलाओं के अधिकार, तथा राजनीतिक भागीदारी को एकीकृत रूप में समझाया गया है।
Keywords:डॉ. भीमराव आंबेडकर; जाति-प्रथा; सामाजिक न्याय; संवैधानिकतावाद; शिक्षा-सशक्तिकरण; आर्थिक स्वतंत्रता; मानवाधिकार; समकालीन भारत।.