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कौटिल्य का कृषि-दर्षनः साहित्यिक अवधारणा और पुरातात्तिवक प्रमाणों की संगति

डॉ0 राजपाल सिंह, एसोसिएट प्रोफेसर, इतिहास विभाग, सी.आर.एम. जाट कॉलेज, हिसार   DOI: 10.70650/rvimj.2025v2i40017   DOI URL: https://doi.org/10.70650/rvimj.2025v2i40017
Published Date: 18-04-2025 Issue: Vol. 2 No. 4 (2025): April 2025 Published Paper PDF: Download E-Certificate: Download

आरंभिक अनुच्छेद: कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र न केवल प्राचीन भारत की राजनीति और अर्थव्यवस्था का दर्पण है, बल्कि उसमें वर्णित कृषि संबंधी नीतियाँ उस काल की आर्थिक संरचना में कृषि की केंद्रीय भूमिका को भी स्पष्ट करती हैं। कौटिल्य का कृषि-दर्शन केवल उत्पादन की विधियों तक सीमित नहीं था, बल्कि उसमें राज्य द्वारा भूमि प्रबंधन, सिंचाई, कर-प्रणाली, कृषि-सुरक्षा, और कृषक कल्याण जैसी नीतियों का भी स्पष्ट विवरण मिलता है। कौटिल्य ने कृषि को राजस्व का मुख्य स्रोत माना और कृषकों की सामाजिक एवं आर्थिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने हेतु विधिसम्मत व्यवस्था का सुझाव दिया। भूमि की उर्वरता के अनुसार उसका वर्गीकरण, बीज चयन, वर्षा और जलसंरक्षण की तकनीकें, तथा कृषि कार्य में राज्य की भागीदारीकृइन सभी बातों का उल्लेख अर्थशास्त्र में मिलता है। इन साहित्यिक वर्णनों की पुष्टि अनेक पुरातात्त्विक प्रमाणों से भी होती है। मौर्यकालीन शिलालेख, मिट्टी के बर्तन, कृषि उपकरण, जलसंरचना (जैसे-बाँध, तालाब), और सिक्के तत्कालीन कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था के भौतिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार, कौटिल्य का कृषि-दर्शन साहित्यिक दृष्टि से जितना समृद्ध है, उतना ही पुरातात्त्विक दृष्टि से भी प्रामाणिक है। यह दर्शन न केवल मौर्यकालीन कृषि व्यवस्था को समझने में सहायक है, बल्कि राज्य और समाज के बीच आर्थिक उत्तरदायित्वों के संतुलन को भी उजागर करता है।

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